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आकृति देखकर मनुष्य की पहिचान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :41
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15471
आईएसबीएन :00-000-00

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लोगो की आकृति देखकर उनका स्वभाव पहचानना मनोरंजक तो होता ही है, परंतु इससे अधिक यह अनुभव आपको अन्य लोगों से सही व्यवहार करने में काम आता है।

चेहरा, आन्तरिक स्थिति का दर्पण है

अपने रोजमर्रा के जीवन में जितने लोगों के सम्पर्क में आता है उनकी आकृति देखकर वह इसका बहुत कुछ अन्दाज लगा लेता है कि इनमें से कौन किस ढंग का है, उसका स्वभाव चाल-चलन और चरित्र कैसा है ? यह अन्दाज बहुत अंशों में सही उतरता है। यद्यपि कभी-कभी बनावट के चकाचौंध में धोखा भी हो जाता है पर अधिकांश में शकल सूरत देखकर यह जान लिया जाता है कि यह आदमी किस मिट्टी से बना है। मनुष्यों को पहचानने की कला में जो जितना ही प्रवीण होता है वह अपने व्यवसाय में उतना ही अधिक निश्चिन्त रहता है, जैसे आदमी से तैसी ही आशा रखने का मार्ग मिल जाय तो ठगे जाने का भय कम रहता है और लाभदायक सुविधाएँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।

बहुत पूर्वकाल से इस विद्या की खोज जारी है, अनेक अन्वेषकों ने इस दिशा में बहुत खोज की है और गोता लगाने पर जो रतन उन्हें मिले हैं उनको सर्व साधारण के सामने प्रकट किया है। महाभारत एवं वेद पुराण और कादम्बरी आदि ग्रन्थों से यह पता चलता है कि इस विद्या से भारतवासी पुराने समय से परिचित हैं। वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड में कथा है कि जब त्रिजटा राक्षसी ने सीता को राम की मृत्यु हो जाने का झुंठा संवाद सुनाया तो सीता ने उत्तर दिया-"हे त्रिजटा ! मेरे पाँवों में पद्यों के चिन्ह हैं जिन से पति के साथ राज्याभिषेक होना प्रकट होता है, मेरे केश पतले समानाकार तथा काले हैं, भौंहें खुली हुई, जंघाएँ रोम रहित तथा गोल, दाँत जुडे हुए उज्ज्वल है इसलिए पण्डितों ने मुझे शुभ लक्षण वाली सौभाग्य शालिनी कहा है, रामजी के न होने से यह सब लक्षण मिथ्या हो जायेंगे ?' इस कथन से विदित होता है कि त्रेता में आकृति विज्ञान की जानकारी स्त्रियों को भी थी।

आर्यों से यह विद्या चीन, तिब्बत, ईरान, मिश्र, यूनान आदि में फैली पीछे, अन्य देशों में भी इसका प्रचार हुआ। ईसा के २५० वर्ष पूर्व टालेमी के दरबार में एक मेलाम्पस नामक विद्वान रहा करता था, उसने इस विषय पर  एक अच्छी पुस्तक लिखी थी। वर्तमान समय में यूरोप अमेरिका के वैज्ञानिक रत एवं पसीने की कुछ बूंदों का रासायनिक विश्रेषण करके मनुष्य के स्वभाव तथा चरित्र के बारे में बहुत कुछ रहस्योद्घाटन करने में सफल हो रहे हैं। शेरो (Cheiro) प्रभृति विद्वानों ने तो नये सिरे से इस सम्बन्ध में गहरा अनुसंधान करके अपने जो अनुभव प्रकाशित किये हैं उनसे एक प्रकार की हलचल मच गई है। आकृति देखकर मनुष्य को पहचान करने की विद्या अब इतनी सर्वागपूर्ण होती जा रही है कि लोगों का भीतरी परिचय कुछ ही क्षण में प्राप्त कर लेना आश्चर्यजनक रीति से सरल एवं सम्भव होने लगा है।

प्रकृति ने थोड़ा-बहुत इस विद्या का ज्ञान हर मनुष्य को दिया है। प्रायः देखा जाता है कि छोटे बच्चे भी लोगों की शकल सूरत देखकर कुछ धारणा बनाते हैं और उसी के अनुसार बर्ताव करते हैं। साधारणतया हर मनुष्य किसी दूसरे पर दृष्टि डालकर यह अन्दाज लगाता है कि विश्वास करने योग्य है या इससे बचकर दूर रहना चाहिए। भले ही आप न जानें कि यह विद्या हमें आती है पर प्राकृतिक नियमों के अनुसार मनुष्य को जो मानसिक शक्तियाँ प्राप्त हुई हैं उनमें मनुष्य को पहचानने की विद्या भी एक है। यह सहज ज्ञान ( इंस्टिक्ट ) हर एक के हिस्से में आया है, यह दूसरी बात है कि किसी के पास उसकी मात्रा कम हो किसी के पास अधिक। जिस प्रकार व्यायाम से बल, पढ़ने से विद्या और प्रयल से बुद्धि बढ़ती है, उसी प्रकार अभ्यास से इस ज्ञान की भी उन्नति हो सकती है और उसके आधार पर बहुत कुछ वास्तविकता की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

अब हम इस प्रसंग पर आते हैं कि किस प्रकार आकृति देखकर दूसरों की पहिचान की जा सकती है। आप किसी व्यक्ति के चेहरे की बनावट पर, नेत्रों में झलकने वाले भावों पर, पहनाव-उढ़ाव पर, तौर-तरीके पर बहुत गंभीरतापूर्वक इस इच्छा के साथ दृष्टि डालिए कि यह व्यक्ति किस स्वभाव का है। यदि मन एकाग्र और स्थिर होगा तो आप देखेंगे कि आपके मन में एक प्रकार की धारणा जमती है। इसी प्रकार दूसरे व्यक्ति के ऊपर दृष्टिपात कीजिए और उस चित्र में धारणा जमने दीजिए। इन दोनों धारणाओं का मुकाबिला करिए और देखिए कि किन-किन लक्षणों के कारण कौन-कौन से संस्कार जमे हैं। तुलनात्मक रीति से उनके लक्षणों पर विचार कीजिए और मन पर जो छाप पड़ती है उसका विश्लेषण कीजिए यह अन्वेषण और अभ्यास यदि आप कुछ दिन लगातार जारी रक्खें तो इस विद्या के संबंध में बहुत कुछ जानकारी अपने आप प्राप्त होती जायगी और अनुभव बढ़ता जायगा।

इस पुस्तक में बताया गया है कि कोई दो प्राणी एक-सी आकृति के नहीं होते, सबकी आकृति में कुछ न कुछ अन्तर अवश्य पाया जाता है, कुदरत ने अपनी कारीगरी हर एक प्राणी पर अलग-अलग दर्साई है। एक साँचे में सबको ढालने की बेगार नहीं भुगती है वरन् हर एक मूर्ति को निराले तर्ज तरीके के साथ गढ़ा है। इस विभिन्नता के कारण यह उदाहरण तो नहीं बताया जा सकता कि इस प्रकार के अंग-प्रत्यंगों वाले इस प्रकार के होते हैं, क्योंकि जिस आदमी की आकृति का उदाहरण दिया जायगा उसकी जोड़ी का दूसरा आदमी सृष्टि में मिल सकना कठिन है। फिर भी कुछ मोटी-मोटी रूप रेखाऐं बताई जा सकती हैं, कुछ ऐसा श्रेणी विभाजन किया जा सकता है कि अमुक ढाँचे की अमुक आकृति हो तो उसका वह परिणाम होगा।

केवल अंग-प्रत्यंगों की बनावट से ही ठीक और अन्तिम निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकता। किसी व्यक्ति का लाक्षणिक परीक्षण करने के लिए उसकी चाल-ढाल, भाव-भंगिमा, तौर-तरीका, मुख-मुद्रा, बात करने, उठने-बैठने का ढंग आदि बातों पर विचार करना होगा। जिस प्रकार गंध सूँघ कर आप थैले में बन्द रखी हुई मिर्च, हींग, कपूर, इलायची अदि को बिना देखे भी जान लेते हैं उसी प्रकार शरीर के बाहरी भागों पर जो लक्षण बिखरे पड़े हैं उन्हें देखकर यह भी जान सकते हैं कि इस मनुष्य के विचार, स्वभाव तथा कार्य किस प्रकार के होंगे। यहाँ भ्रम में पड़ने की कोई बात नहीं है।

आकृति की बनावट के कारण स्वभाव नहीं बनता, वरन् स्वभाव के कारण आकृति का निर्माण होता है। स्थूल शरीर के एक धुंधली-सी छाया हर वक्त साथ-साथ फिरा करती है, सूक्ष्म शरीर की भी एक छाया है जो जरा गहराई के साथ दृष्टि डालने से लोगों की आकृति पर उड़ती हुई दिखाई देती है। पेट में जो कुछ भरा है वह बाह्य लक्षणों से प्रकट हुए बिना नहीं रहता। प्याज पेट में भीतर पहुँच जाय तो भी उसकी गंध मुँह में आती रहती है, इसी प्रकार आन्तरिक विचार और व्यवहारों की छाया चेहरे पर दिखाई देने लगती है। यही कारण है कि आम तौर पर भले बुरे की पहचान आसानी से हो सकती है, धोखा खाने या भ्रम में पड़ने के अवसर तो कभी-कभी ही सामने आते हैं।

मनुष्य के कार्य आमतौर से उसके विचारों के परिणाम होते हैं। यह विचार आन्तरिक विश्वासों का परिणाम होते हैं। दूसरे शब्दों में इसी बात को यों कहा जा सकता है कि आन्तरिक भावनाओं की प्रेरणा से ही विचार और कार्यों की उत्पत्ति होती है, जिसका हृदय जैसा होगा वह वैसे ही विचार करेगा और वैसे कार्यों में प्रवृत्त रहेगा। सम्पूर्ण शरीर और भावनाओं के चित्र बहुत कुछ झलक आते हैं, अन्य अंगों की अपेक्षा चेहरे का निर्माण अधिक कोमल तत्वों से हुआ है, मैले पानी की अपेक्षा साफ पानी में परछाई अधिक साफ दिखाई पड़ती है, इसी प्रकार अन्य अंगों की अपेक्षा चेहरे पर आन्तरिक भावनाओं का प्रदर्शन अधिक स्पष्टता के साथ होता है ! यह विचार और विश्वास जब तक निर्बल और डगमग होते हैं तब तक तो बाद दूसरी है पर जब उग आते हैं।

आपने देखा होगा कि यदि कोई आदमी चिन्ता, शोक, क्लेश या वेदना के विचारों में डूबा हुआ बैठा होता है तो उसके चेहरे की पेशियाँ दूसरी स्थिति में होती हैं किन्तु जब वह आनन्द से प्रफुलित होता है तो होठ, पलक, गाल, कनपटी, मस्तक की चमड़ी में दूसरे ही तरह की सलवटें पड़ जाती हैं। हँसोड़ मनुष्यों की आँखों की बगल में पतली रेखाएँ पड़ जाती हैं, इसी प्रकार क्रोधी व्यक्ति की भवों में बल पड़ने की, माथे पर खिंचाव की लकीरे बन जाती हैं। इसी प्रकार अन्य प्रकार के विचारों के कारण आकृति के ऊपर जो असर पड़ता है उसके कारण कुछ खास तरह से चिह्न दाग रेखा आदि बन जाते हैं। जैसे-जैसे वे भले-बुरे विचार मजबूत और पुराने होते जाते हैं वैसे ही वैसे चिह्न भी स्पष्ट तथा गहरे बन जाते हैं।

दार्शनिक अरस्तू के समय के विद्वानों का मत था कि पशुओं के चेहरे से मनुष्य के चेहरे की तुलना करके उसके स्वभाव का पता लगाया जा सकता है। जिस आदमी की शकल सूरत जिस जानवर से मिलती जुलती होगी उसका स्वभाव भी उसके ही समान होगा। जैसे भेड़ की सी शक्ल मूर्ख होना प्रकट करती है। इसी प्रकार सियार की चालाकी, शेर की बहादुरी, भेड़िए की क्रूरता, तेंदुए की चपलता, सुअर की मलीनता, कुत्ते की चापलूसी, भेंसे की आलसीपन, गधे की बुद्धिहीनता प्रकट करती है। यह मिलान आज कल भी ठीक बैठता है पर अब तो इस विद्या ने बहुत तरकी कर ली और अन्य बहुत सी बातें भी मालूम हो गई हैं।

निस्संदेह चेहरा मनुष्य की आन्तरिक स्थिति को दर्पण के समान दिखा देता है। आवश्यकता इस बात की है कि उसे देखने और समझने योग्य ज्योति आँखों में हो। इस पुस्तक में चेहरे के हाल, भँवें, मस्तक, कान, नाक, दाँत, ठुड्डी, मुँह तथा आँखों के सम्बन्ध में हम लिखेंगे। हस्त रेखा, छाती, हाथ, पाँव, कमर, पीठ आदि अंगों के बारे में शीघ्र ही एक अलग पुस्तक प्रकाशित करेंगे।

किसी हाट बाजार में बैठी हुई सुस्ताती हुई रूपवती नवयुवती के समीप खड़े होइए और देखते रहिए कि उधर से निकलने वाले लोगों की किस प्रकार की दृष्टि उस पर पड़ती है। स्त्री, पुरुष, बालक, वृद्ध, बालिका की दृष्टि उस युवती पर जायगी पर उनमें एक-दूसरे की अपेक्षा बहुत अन्तर होगा। किसी की दृष्टि में वासना, किसी की में कामुकता, किसी में स्नेह, किसी में भूख, किसी में लालच, किसी में कुढ़न, किसी में तिरस्कार, किसी में वैराग्य, किसी में घृणा भरी हुई भावना आपको दिखाई देगी।

यह विभिन्नताएँ बताती हैं कि उन देखने वालों में से किस-किस का कैसा स्वभाव है। विगत जीवन में इस प्रकार की किसी युवती से जिसे जैसा वास्ता पड़ा होगा उसकी वैसी ही अनुभूति जागृत होगी। जिस वृद्धा को अपनी इतनी ही बड़ी ऐसी ही पुत्री का वियोग सहना पड़ा होगा उसके नेत्रों में इस अज्ञात युवती के प्रति भी वात्सल्य भाव उमड़ आवेगा। देखने वाला जान सकता है। भूत यह कि इस वृद्धा को इस प्रकार की कोई लड़की कभी प्यारी रही है, वर्तमान यह कि अब उसका वियोग इसे सहना पड़ रहा है। यह तो एक सामयिक घटना हुई, किसी घटना का कोई जोरदार प्रभाव पड़े तेा उसके संस्कार गहरे उतर जाते हैं और वे किसी साधारण समय में भी नेत्र आदि अंगों में जमे हुए भाव अन्य लक्षणों को देखकर पहचाने जा रहे हैं।

आकृति विज्ञान का यही आधार है।

कहानी तथा उपन्यासों का लेखक अपने पात्र का चरित्र चित्रण करते समय उनकी बोलचाल, रहन-सहन, मकान, कपड़े, शकल, सूरत का भी वर्णन करके अपनी रचना को हृदयग्राही बनाते हैं। सुयोग्य लेखक जानते हैं कि भीतरी चरित्र बाहरी रंगढ़ग में प्रकट होकर रहता है, इसलिए उसका वर्णन करने से यह सिद्ध होता है कि लेखक ने मानवीय आकृति विज्ञान से किस हद तक जानकारी प्राप्त की है।

काला, गोरा, सुन्दर, कुरूप कैसा ही व्यक्ति क्यों न हो उसकी बुरी आदतों के कारण सुन्दर अंगों में भी भौंडापन आ जायगा, जो सुसंस्कृत हैं वे अष्टावक्र या सुकरात की तरह कुरूप क्यों न हों उनके अंग अपनी बनावट में खड़े रहते हुए भी प्रामाणिकता को साक्षी देते रहेंगे। यह रचना आदतों के कारण बनती या बिगड़ती रहती है। एक सज्जन व्यक्ति जब कुमार्ग की ओर चलता है तो उसके सज्जनता के चिह्न घटते हैं और विभिन्न अंगों में से लक्षण उदय हो जाते हैं जिन्हें देखकर दुर्जनता को पहचाना जा सकत है। हाथों की रेखाएँ घटती बढ़ती हैं, उसमें से कुछ नई निकलती हैं लुप्त हो जाती हैं, यह परिवर्तन आचार और विचार में अन्तर आने के कारण होता है। इसी प्रकार स्वभाव और व्यवहार के कारण सूक्ष्म रूप से मन और शरीर पर जो प्रभाव पड़ता है उसके लिए कई प्रकार के विचित्र चिह्न उत्पन्न हो आते हैं तथा अंगों के ढाँचे में कुछ विचित्र तरीके से हेर-फेर हो जाता है।

आध्यात्मिक पुरुष इन्हीं लक्षणों को देखकर मनुष्य की भीतरी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। स्थिति का पता होने से परिणाम की कल्पना सहज ही की जा सकती है जैसे कोई व्यक्ति विद्वान वक्ता और सद्गुणी हो तो अनायास ही यह कह सकते हैं कि "इसे जनता में आदर मिलेगा।" इसी प्रकार शारीरिक चिहों से भीतरी योग्यताओं का पता लगने से उसके भविष्य फल की भी बहुत हद तक ऐसी कल्पना की जा सकती है जो अन्त में सच निकले। इस प्रकार आकृति देखकर किसी मनुष्य का चरित्र जानना तथा उसका भविष्य बताना दोनों ही सम्भव हैं।

एक बात स्मरण रखने की है कि आकृति विज्ञान भाग्यवाद का किसी भी प्रकार समर्थक नहीं है। गुण, कर्म और स्वभाव में जो अन्तर आते हैं उनके अनुसार चेहरे का रंग ढंग भी बदल जाता है, आकृति विद्या का ज्ञाता एक समय में एक मनुष्य के जो लक्षण बताता है, यदि उस व्यक्ति का स्वभाव बदल जाय तो उसे उसके लक्षण भी बदले हुए मिलेंगे। यह ठीक है कि ढाँचा नहीं बदलता, ढाँचे का संबंध पूर्व जन्मों के संचित संस्कारों से होता है। सुन्दर सुडौल अंगों वाला व्यक्ति पूर्व जन्म का शुभ कर्मकर्त्ता तथा कुरूप और बेडौल अंगों वाला पूर्व जन्म में अशुभ कर्मकर्ता रहा होगा तदनुसार उन संस्कारों की प्रेरणा से इस जन्म में सुन्दरता या कुरूपता प्राप्त हुई है यह मान्यता ठीक है। यह जन्म जात ढाँचे और रंग रूप बदले नहीं जा सकते, उन्हें देखकर जन्म-जन्मान्तरों के कुछ स्वभाव और संस्कारों का परिचय प्राप्त होता है, पर ऐसी बात नहीं कि वर्तमान जन्म में उन संस्कारो में परिवर्तन करना सम्भव न हो, मनुष्य को ईश्वर ने पूर्ण स्वतंत्र बना कर भेजा है वह स्वेच्छानुसार पुराने सब स्वभावों को बदल कर नये ढाँचे में ढल सकता है।

आकृति परिज्ञान विद्या एक वैज्ञानिक क्रिया पद्धति है, ऐसा कदापि नहीं कहता कि-"मनुष्य भाग्य का पुतला है या विधाता ने उसे जैसा बना रक्खा है वैसा रहना पड़ेगा।" भाग्यवाद को इस विद्या के साथ जोड़ना एक बहुत बड़ी गलती करना है। मानसून हवाओं को देखकर यदि कोई वायु विद्या विशारद शीघ्र वर्षा होने की घोषणा करता है या मच्छरों की वृद्धि को देखकर कोई डाक्टर मलेरिया की चेतावनी देता है या गवाहों के बयान सुनकर कोई कानूनवेत्ता मुकदमा हार जाने की बात कहता है तो यह न समझना चाहिए कि यह सब बातें भाग्य में लिखी  हुई थीं जिन्हें इन लोगों ने किसी गुप्तज्ञान से जान लिया है।

वास्तव में वायु विद्या विशारद, डॉक्टर तथा कानूनवेत्ता महानुभावों ने जो भविष्यवाणियाँ की थीं वे सामयिक स्थिति को देखते हुए उनके परिणामों के ज्ञान के आधार पर की थीं। यदि उनमें कुछ परिवर्तन किया जा सके तो फल भी बदल सकता है, मच्छरों को यदि मार भगाया जाय तो डाक्टर की चेतावनी पत्थर की लकीर न रहेगी। यही बात आकृति विद्या के सम्बन्ध में है, किसी मनुष्य का भूत, भविष्य और वर्तमान इसके द्वारा कहा जा सकता है, भूगर्भ विद्या के ज्ञाता जमीन देख कर निकाले हुए एक पत्थर के टुकड़े के आधार पर अनेक एतिहासिक तथ्य खोज निकालते हैं फिर आकृति की बारीकियों का निरीक्षण करके मनुष्य जीवन के आगे पीछे की बहुत-सी बातें भी कही जा सकती हैं, किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि यह कथन अन्वेषण और अनुभव की बुद्धि संगत वैज्ञानिक विधि से ही किया जा रहा है। इसमें ऐसी कोई बात नहीं है कि आदमी को ब्रह्माजी ने एक गोबर गणेश भाग्य का पुतला बना कर भेजा हो। मनुष्य अपने आप को चाहे जैसा बनाने में पूर्णतया स्त्रतत्र हैं।

कभी-कभी आकृति विद्या के आधार पर कही हुई कुछ बातें ठीक नहीं बैठतीं, इसके दो कारण हैं-एक तो यह कि उस व्यक्ति ने अपना स्वभाव बदल डाला है किन्तु शरीर पर प्रकटित चिन्हों केा बदलने में कुछ अड़चन हुई हो अथवा नये चिह्न अभी प्रकट न हुए हों। दूसरा कारण यह है कि फल कहने वाले से लक्षण पहचानने तथा फल कहने में कुछ गलती हुई हो, इन कठिनाइयों का ध्यान रखते हुए जब असफलता मिले तो हताश न होकर कारण को खोजना चाहिए और एक अन्वेषक की भाँति वास्तविकता का पता लगाते हुए इस विज्ञान को आगे बढ़ाने में सहायता करनी चाहिए।

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